Friday, December 11, 2009

दोस्तों ब्लॉग छोड़ कर मत जाओ, कौन लिखेगा वक्त ऐसा क्यों है ?


टूटने बिखरने के ब्योरे दर्ज कर पाना मेरे लिए सदा दुष्कर कार्य रहा है, मेरी प्रतिभा एक सामान्य बालक, युवा और फिर अधेड़ होने की ओर अग्रसर आम आदमी जैसी ही है. मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ भी मुझे विशिष्ट नहीं बनाती है छठवे, सातवे और उससे आगे के सेन्स मुझ तक अभी पहुंचे नहीं हैं. पंद्रह बीस दिन पहले एक सपना देखा।

मैं अपने कुछ मित्रों के साथ किसी आर्मी एरिया के पास जंगल में किसी की हत्या करने का ताना बुन रहा हूँ. बेतरतीब खड़े पेड़ भयावहता का चित्र उकेरते हैं, अँधेरा उसमे कुटिलता भर रहा है. अनचीन्ही पदचापों पर हम सिहर जाते हैं या फिर किसी गुप्त आयोजन के लिए किये जाने वाले संवाद कि तरह हौले हौले बतिया रहे हैं. करवट बदलता हूँ और महसूस करता हूँ कि सपना देख रहा हूँ लेकिन वह फिर से से मुझे उसी जंगल में खींच ले जाता है.

एक दुबली सी लड़की और उसके साथ एक लड़का है जिसके बाल कुछ इस तरह बढे हुए हैं कि वह संगीत का साधक दीख पड़ता है और लड़की को देखते हुए वह मुझे नाटक में काम करनेवाली कोई प्रशिक्षु जान पड़ती है. इस लड़की को देखते हुए लगता है कि लड़का मुहब्बत का इज़हार करते ही शादी जैसे विकार से ग्रसित हो जायेगा. वे दोनों एक सड़क जैसे फुटपाथ पर चलते हुए हमारे जंगल में दाखिल होते हैं. मैं उकडूं बैठा हुआ उन्हें किसी गहन विचार विमर्श में व्यस्त देखता हूँ. एक पल में दृश्य बदलता है और उन दोनों के जाते ही मैं नायलोन की एक रस्सी से टेंट में लेटे हुए एक अजनबी आदमी का गला घोंटने लग जाता हूँ. अपने पूरे सामर्थ्य को झोंक देता हूँ कि कहीं ये बच न जाये. वह मर गया...

उसके चहरे को देखने पर सोचता हूँ कि क्या इसके चेहरे पर गला घोटे जाने से पहले भी यही भाव थे लेकिन मुझे स्मृति नहीं हो पाती कि इसका चेहरा मैंने पहले भी देखा था या नहीं. भय किसी सांप सी सरसराहट सा रेंगता हुआ मेरे चारों और पसर जाता है. मेरी कामयाबी के बाद तुरंत एक मित्र हाजिर होता है. हम दोनों अविश्वास से उस लाश को ठिकाने लगा देते हैं. एक घने झुरमुट के नीचे बनाये हुए गड्ढे में दफन कर दिए जाने के बाद लगता कि अब पाँव साथ नहीं देंगे. 

दरवाज़े के नीचे की झिरी से आती ठंडी हवा से सपना उचट जाता है. रजाई को खींचते हुए देखता हूँ कि आभा और दुशु पलंग पर आराम से सो रहे हैं. बाहर माँ के कदमों की आहट आती है, लगता है कि इस समय उन्होंने मुंह में ब्रश दबा रखा होगा और पिताजी के स्वभाव के ठीक विपरीत, घूमते हुए हुए दांत मांज रही है.

ये सपना देखने के बाद, उस दिन मेरे साथ क्या हुआ याद ही नहीं आता. वैसे स्मृतियाँ इस बात पर ही निर्भर करती है कि आप उनसे कितनी नफ़रत या मुहब्बत करते हैं. एक शतरंज का खिलाड़ी अपने सामने बिछी शतरंज की बिसात की तस्वीर को एक सैकेंड में याद रख सकता है. उसका तरीका तभी तक कारगर है जब तक कि बिसात में रखे मोहरे, खेल के नियम तोड़ते ना हों. मेरी बिसात से डेढ़ साल पहले बादशाह अलविदा कहे बिना जा चुके हैं. गंभीर हृदयाघात ने पल भर में मुझे प्यादे से भी छोटे कद का बना दिया. दुनिया के दिए हुए हौसले हमेशा नाकाफी होते हैं. जब तक दो तीन तेज हवा के झोंकों से रूबरू होने का समय न आये. पिता जी एक निम्न मध्यम वर्ग के परिवार को मध्यम वर्ग का जीवन जीने लायक बना गए थे किन्तु उनके जाने के बारे में अब भी परिवार का कोई सदस्य बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता.

जीवन के पांच सौ दिन अधिक नहीं होते मगर जब आप भय की वादी में अकेले होने का अहसास पाते है तो साहस के पाठ याद नहीं आते. इन पांच सौ दिनों की हर सुबह मैं दुशु को नहलाने में लग जाता, आभा नाश्ता तैयार करती फिर दोनों बच्चों को स्कूल के लिए बस तक छोड़ने जाता रहा हूँ. दस बजे तक आभा अपने सरकारी स्कूल चली जाती, मैं दिन भर घर में कुछ पढ़ने या अपने पसंद के कामों में दिन बिता देता. मेरी पसंद का एक काम है कि शाम चार बजे नहाया जाये. इस पर पता नहीं घर वाले बीस पच्चीस साल से हँसते रहे होंगे पर मुझे याद नहीं आता क्योंकि मुझे इस कार्य पर होने वाली प्रतिक्रिया में कोई आकर्षण नहीं दीखता था. आभा चार बजे घर लौटती तब हमेशा मैं उसे बाय कहने के लिए आखिरी सीढ़ी उतर रहा होता. उसके लिए घर फिर से स्कूल जैसा हो जाता और मैं आकाशवाणी में शाम की ड्यूटी के दौरान बंद स्टूडियो में सूरज का उतरा हुआ मुंह नहीं देख पाता था. जब बाहर निकलता तब तक कस्बा सो चुका होता किन्तु दो तीन जोड़ी आँखों में इंतजार बना रहता था. बस घर लौटते ही दरवाजे के खुलने के के साथ कुछ स्मृतियाँ पांवों से लिपट जाती कि पहले हमेशा दरवाजा पापा ही खोला करते थे. 

जब वह सपना देखा था, उसके कुछ दिन बाद पाया कि मेरे बाएं पैर के नीचे एक कोन बनने लगा है. इस बीमारी को स्थानीय भाषा में आईठाण कहते हैं. अंगुली रखने जितने स्थान पर चमड़ी सख्त हो गयी थी और पाँव को ज़मीं पर रखते हुए कष्ट का अनुभव होने लगा था. एक सहपाठी दोस्त को फोन किया. यार डॉक्टर इसका क्या करें तो वह बच्चों के समाचार पूछने लग गया. मुझे निर्देश दिए कि जमाना बहुत कम्पीटीशन का है इसलिए बच्चों पर ध्यान दो. कुल मिला कर आठ मिनट के दौरान हुई बातचीत के बाद उसने बताया कि सोफ्ट शू पहना कर और कामरेडी चप्पल छोड़ दे. पाँव दर्द करता रहा मैं जींस पर कुरता डाल कर ऑफिस के रस्मो-रिवाज पूरे कर आता. रात को लौटते समय क़स्बे के अपनापन को हमेशा गुम ही पाता. सर्दी का मौसम रेगिस्तान में मेहमान बन के आता है रात भर ठण्ड दिन में तेज धूप. सुबह या देर रात अलाव तापने वाले नंगे बदन लोगों ने अब यहाँ रंग बिरंगी डांगरी पहन ली है. वे या तो केयर्न इण्डिया वाले नीले रंग में दीखती है या फिर एल टी की पीली वाली. फुरसत के दिन मल्टी नॅशनल कंपनियों ने लूट लिए हैं.

तेल उत्पादन शुरू हो चुका है और पैसे की होड़ में भाई ने भाई के विरुद्ध हर स्तर पर मोर्चे खोल लिए हैं. मेरा घर आदिवासी भील, मेघवाल, गाडोलिया लुहार और सिंध से आये शरणार्थी परिवारों के बीच है. यहाँ भी अब पुश्तैनी कामों को अलविदा कहा जा चुका है. मजदूरों की पहचान आसान नहीं रही. गली गली में यू पी, बिहार, और बंगाल से आये मजदूर किराये पर रहते हैं. रेगिस्तान की सहिष्णु परम्परा कभी किसी का विरोध नहीं करती, परन्तु से मुझे सख्त नफ़रत है. वैसे सभ्यताएं और संस्कृतियाँ उजडती रही हैं और उनका विकास भी होता रहा है. हमारी नस्लों में अगर रेत के जींस होंगे तो वे भी कोई नया ठिकाना ढूंढ लेगी, जहाँ आदमखोर दैत्याकार मशीनों का शोर नहीं होगा और कोई कोस भर दूर हवा में लहराते हुए कपडे को देख कर मन हुलस उठेगा. मुझे ये गहरा एकांत पसंद है.

कल रात ग्यारह बज कर तीस मिनट पर घर आया. सब जाग रहे थे. खाना गर्म करके खाया और सो गया. बड़ी बुरी आदत है. सब कुढ़ते हैं. मैं अच्छी आदतें पाल नहीं सकता फिर भी परिवार मुझे ख़ुशी से पाल रहा है. रात को करवट ली होगी, याद नहीं. सुबह फिर वही घना जंगल मेरे आस पास खिल उठा.

वही दुबली लड़की और उसका साथी लड़का बातें कर रहे थे. सरकारी एजेंसी के लोग गुम हुए आदमी का पता लगाने की प्रक्रिया में जांच का कार्य कर रहे थे. जंगल के उसी मुहाने पर मैंने सुना. जिस आदमी की मैंने हत्या की थी, वह इस लड़की का पिता था या कुछ इसी तरह का रिश्ता. एक संवाद किसी अजगर की तरह मेरे चारों ओर कुंडली मार गया कि लापता आदमी की लाश को बरामद किया जा चुका है. हत्यारा उसकी गर्दन को मिट्टी में दबाना भूल गया था.

मेरी रजाई फांसी के फंदे में तब्दील हो चुकी थी और वह निरंतर मेरे गले की और बढती हुई सी लगने लगी. एक अपराधबोध से पीड़ित मैं पाषाण हो कर अनंत अँधेरे में खुद को डूबते हुए देख रहा था. भयानक सपना, ऐसा सपना कि मैं दो घंटे तक उसका सच खोजता रहा. मेरे सजीव होने का आभास मुझे डराने लगा, वह सब अव्यक्त है. आभा ने जब दूसरी बार कॉफी दी तब मैंने तय किया कि आज सुबह ही नहा लेना चाहिए. गीजर का गर्म पानी मुझे किसी यातना गृह में रखे उबलते कड़ाहे का आभास देगा, ये सोच कर डर गया. फ्रायड का मनोवैज्ञानिक विश्लेष्ण मैंने कई बार पढ़ा है इसलिए समझ आ गया कि मैं अवसाद में हूँ. नहा लेने से राहत हुई और यकीन भी कि मानसिक तौर से अस्वस्थ होने की दिशा में जा रहा हूँ. मैंने पाया कि अभी आभा को स्कूल जाने में एक घंटा है तब तक कुछ ब्लॉग देख लूं. "सुख अकेले सिपाही की तरह आते हैं और दुःख फ़ौज की तरह" नेपोलियन के ये कथन मेरे सामने खड़ा था. अपूर्व की पोस्ट देखी, ब्लोगिंग को अलविदा. मेरे सपने के बाद की इस ख़बर ने मुझे और अवसाद की स्थिति में पहुंचा दिया. दिन भर ऑफिस में रहा, दो बार संजय से बात हुई. वे दुखी थे. उन्होंने अपनी चिंताओं से मुझे वाकिफ कराया थोड़ी राहत हुई, पर ये मेरे लिए नाकाफी थी.

इन्हीं उजड़े बिखरे दिनों में, मैं लंगड़ाते हुए चलता हूँ, दोस्तों से बात करने को बेताब रहता हूँ कि कोई राहत की लहर इधर भी आये मगर दोस्तों को खुश नहीं रख पाता और अपने बेटे से कहता हूँ आज बेडमिन्टन की जगह एक चेस की बाज़ी हो जाये. आज की शाम होते होते एक मित्र से बात हुई. वो मित्र, एक सोने की अंगूठी है. जिसका हीरा अब आसमान का नक्षत्र हो चुका है. जब भी अंगूठी पर हाथ जाता है, खाली किनारे अन्दर तक चुभते हैं. अकेले बच्चों को बड़ा करते हुए, सिटी बस, स्कूटर, ट्राम का पीछा कर हमेशा ज़िन्दगी पर एक दिन की जीत दर्ज करता है. उन्हें जीवन से हार जाने वालों के प्रति सहानुभूति हो सकती है पर मैदान छोड़ जाने वालों के लिए शायद नहीं. उनकी हज़ार तकलीफों के आगे मेरे भयावह सपने बौने हैं. हमारी बातचीत इस वाक्य के साथ समाप्त हुई कि हम बात नहीं कर सकते.

ये एक बुरे दिन की बुरी शाम थी. मेरा मन असंयमित और अजीब सी उदासी में था. जो लोग ब्लॉग छोड़ कर जा रहे थे, उनके कोई पते मेरे पास न थे. मेरे पास थी आर्थर नोर्त्जे की स्मृतियाँ, नोर्त्जे यानि दक्षिण अफ्रीका का सबसे संभावनाशील कवि जो 1942 में जन्मा और 1970 में विलोपित हो गया. मात्र अट्ठाईस साल की उम्र में दुनिया छोड़ जाना कितना दुखद है. कहते हैं कि उसने ख़ुदकुशी कर ली थी. उसमे रंगभेद नीति का विरोध करने के लिए स्वदेश लौटने का साहस नहीं था. दोस्तों, मैं उस ऑर्थर नोर्त्जे की स्मृतियों के सहारे ही नहीं जीना चाहता हूँ. मुझे अपने आस पास संभावनाशील कवि कथाकारों की जरूरत है. सोचता हूँ कि क्या हिंदी ब्लॉग में सिर्फ लफ्फाज, लम्पट व शोहदे बचे रहेंगे और कवि कथाकार अपनी आहत आत्मा की संतुष्टि के लिए अलविदा कहते जायेंगे ? और कुछ सापेक्ष प्रश्नों के उत्तर में अपना लेखन स्थगित कर देंगे.

मेरा मन विचलित है और मेरे ख़यालों की दौड़ भंवर में फंस गयी है. ऑर्थर नोर्त्जे के कुछ शब्द आप तक भेज रहा हूँ, अगर वे अपील करे तो सब लौट आओ. हिंदी ब्लोगिंग में सिर्फ लम्पट ही नहीं बचे रहने चाहिए ? मैं आपको मेरे ब्लॉग रोल में देखना चाहता हूँ.

मुझे भय नहीं है सृष्टि की अनंतता
या प्रलय से

यह तन्हाई है जो क्षत विक्षित करती है
और रात को बल्ब की रोशनी

जो दिखाती है मेरी बाँह पर राख...

[ Photo Courtesy : http://www.unisa.ac.za/]




Monday, March 23, 2009

कामान्ध राजा और रेगिस्तान की छिपकली


सखी, तुम्हारी कौमार्य अवस्था के कारण इस कथा को सुनते समय मन में श्लील-अश्लील के राग उत्पन्न हो सकते हैं किंतु ये महज मनोवेग हैं और परिस्थितियों के अनुरूप बदलते रहते हैं। आज ग्यारहवीं सदी के इक्कीसवे वर्ष के मध्याह्न माह के पुष्य नक्षत्र के अमृत सिद्धी योग में सुनाई जा रही इस कथा में बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के कुछ आवश्यक उद्धरण भी सम्मिलित हैं वे मैंने अपनी दिव्य दृष्टि से जाने हैं। रति रूपणि के सहचर्य को आतुर, मोहिनी मूरतों के मोह से बंधा व्याकुल और अधीर सुरमेरू का राजा कामलोभ...


बड़ा विचित्र नाम है ?

सखी कथा के असीम आनंद को प्राप्त करने का एक आवश्यक तत्व यह भी है कि जिज्ञासा को नियंत्रण में रखा जाए और कथाकार से अनावश्यक प्रश्न ना पूछे जायें। इससे कथा की लम्बाई बढती है और रस की बूंदें विलंब से टपकती है। तो, बल से प्राप्त राज्य तदन्तर अनंत इच्छाओं की पूर्ति के लिए बल पूर्वक किए गए राज्य विस्तार के कारण उसका नाम बललोभ था किंतु कालांतर में कामक्रियाओं के अधीन हो जाने के कारण उसे कामलोभ नाम से जाना जाने लगा।

कामलोभ का मन राज कार्यों से एका एक उचट गया वह एक ऐसी व्याधि से ग्रसित हो गया जिसके सूत्र उसकी किशोरावस्था से जुङे हैं। राजपुत्र होने के कारण किसी जतन से उसे हरम तक पहुँचने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता, अल्पायु में नाना प्रकार की काम क्रीडाएं देख लेने के कारण वह कई प्रकार की भ्रांतियों और मनोविकारों से ग्रसित हो गया था। आने वाली इक्कीसवीं सदी में ये हरम इन्टरनेट जैसे एक माध्यम से हर घर में पहुँच जाएगा इसलिए ये कथा समीचीन है और इसको सुनाने से प्रयोजन भी सिद्ध होता है।

कामलोभ के रति क्रीड़ा में लिप्त रहने के कारण उसके मंत्री स्वार्थलोभ के सभी स्वार्थ सिद्ध होते थे अतः उसने राजा को सुझाव दिया कि किसी ऐसी औषध का पता लगाया जाए जो उनके सुख में श्रीवृद्धि कर सके। अपने मन की बात मंत्री के मुंह से सुन कर कामलोभ को अतिप्रसन्नता हुई और स्वार्थलोभ को पुरस्कृत करने का विचार मन में आया किंतु अपनी प्रतिष्ठा और उम्र का सोच कर मात्र सहमती का संकेत किया।

मंत्री ने तत्काल राजवैध्य, सम्मानलोभ तक दौड़ लगायी और राजा का मंतव्य बताया। यह सुनते ही सम्मानलोभ ने असमर्थता दिखाते हुए कहा मंत्री जी इस तरह का कोई औषध नहीं है जो शारीरिक रूप से समर्थ व्यक्ति को और अधिक काम बलवान बना सके हाँ कुछ उत्तेजक और मादक पदार्थ अवश्य हैं जो क्षणभंगुर सुख प्रदान करते है किंतु उनके मूल्य के रूप में राजपाट भी चुकाना पड़ सकता है इनका सेवन करने पर मनुष्य पशु सदृश्य हो जाता है।

मंत्री के अत्यधिक आग्रह पर सम्मानलोभ ने बताया कि पूरे उत्तर भारत और काठियावाड़ क्षेत्र में एक कांटेदार पूंछ वाली छिपकली पाई जाती है उससे कुछ उपाय बन सकता है। स्वार्थलोभ ने अपने आदमी अर्थलोभ को उसकी खोज में भेजा, कई महीनों तक निरंतर प्रयास के पश्चात भी वह उपयुक्त छिपकली नहीं ढूँढ पाया, इधर राजा की बेचैनी बढती जा रही थी ढलती उम्र में संयम से काम लेने के स्थान पर वह हर क्षण व्यग्र हुआ जाता, काम का दलदल उसे अपने पाश से मुक्त करने के स्थान पर अपने भीतर समेटता जाता।

अर्थलोभ के खाली हाथ लौट आने पर सम्मानलोभ ने इस बार उसे विस्तार से छिपकली के रंग रूप के बारे में बताया, उसने जो सूचनाएं दी उससे भी उन्नत जानकारी के लिए सखी मैं तुम्हें इक्कीसवीं सदी की एक ऐसी पाठशाला ले चलती हूँ जिसका विस्तार कई किलोमीटर तक फैला है इसमे कई हज़ार विद्यार्थी पढ़ते है और शोध करते है, प्राणिशास्त्र विभाग के अध्येता मनोज चौधरी ने बताया कि ये एक बालू छिपकली है। इसका वैज्ञानिक नाम युरोमेस्टिक हार्डवीकी है ये सरीसर्प कक्षा का प्राणी है।

हिन्दी भाषा में इसे सांडा के नाम से जाना जाता है। सीमित भौगोलिक परिस्थितियों में पाया जाता है और कई बार तो ये कुछ मील परिधि में ही मिलता है। अपने ताक़तवर पंजों से बिल खोदता है और इसका चौड़ा और भोथरा थूथन इसके बिल में धुसने में सहायता करता है, इसका सर तिकोना होता है इसकी ख़ास पहचान है प्रत्येक जांघ पर एक बड़ा काला धब्बा, नर की लम्बाई पैंतालीस सेंटीमीटर के आस पास होती है और मादा अपेक्षकृत कम लम्बी होती है।

सखी इस पीले भूरे रंग वाली छिपकली के बारे में कुछ और सुनों, इस छिपकली के तीन दांत होते हैं एक ऊपर और दो नीचे। अप्रेल माह के अन्तिम और मई माह के प्रथम सप्ताह में ये छिपकली मदकाल में होती है, सवेरे से दोपहर तक सहवास क्रिया के दौरान नर भूरा रंग प्रर्दशित करता है और आक्रामक बना रहता है जबकि मादा लेथार्जिक। इनके पन्द्रह से बीस अंडे होते है जिनमे से निकलने वाले बच्चों में से आधे ही जीवित रह पाते हैं।

सखी राजा के लिए सांडा पकडने गया अर्थलोभ मारा-मारा फिरता रहा उसने कई प्रकार की छिपकलियाँ पकड़ी, उनमे से ज्यादातर गोह निकली। थके हारे अर्थलोभ को एक आदिवासी समाज ने सहारा दिया और उनका पता बताया अब मैं तुम्हें इक्कीसवीं सदी के एक सीमान्त गाव डंडाली के एक आदिवासी युवा भूरा भील से सुनवाती हूँ कि अर्थलोभ को सफलता कैसे हाथ लगी।

साब, बिल में हाथ डालने से सांडा नहीं मिलता, यह तो अपना बिल मिट्टी से ढक कर बैठता है, हम सबसे पहले वो बिल ढूँढते हैं जिन्हें ताज़ा मिट्टी से ढका गया हो फ़िर उसका मुंह खोल कर उसमे दो तीन मीटर लम्बी कैर की लकड़ी डालते हैं अगर लकड़ी हिलती है तो उसमे जरूर सांडा होता है। कुछ लोग धुंआ करके और कुछ खोद कर सांडा पकड़ लेते हैं, पकड़ में आते ही इसकी कमर तोड़ देते हैं ताकि ये भाग ना सके। घर ले जाकर हम इसका सफ़ेद मांस पका कर खाते हैं, इसकी पूंछ के पास लहसुन के आकर की दो कॉपियाँ मिलती है उनको तवे पर गर्म करने से तेल निकलता है इसके प्रयोग से आदमी मर्द हो जाता है।

हे सखी बीसवीं सदी के भारत में भारतीय वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत इसे संरक्षित घोषित किया जाएगा तब भी अनूपगढ़ थाना हलका में कई सौ सांडों के साथ शिकारी पकड़े जायेंगे और उन पर अभियोग चलेगा किंतु अर्थलोभ की सफलता से राजा कामलोभ अतिप्रसन्न हुआ, उसको कई स्वर्णमुद्राएँ पारितोषिक के रूप में दी।

विधि विधान से उन छिपकलियों का प्रतिदिन तेल निकला जाने लगा, उस तेल की मालिश से कामलोभ ने स्फूर्ति का अनुभव किया किंतु कुछ ही दिनों में हालात पहले जैसी हो गई।

काम लोभ ने सम्मानलोभ से निराशापूर्वक पूछा, राजवैद्य जी असर जितना आया था उससे दुगुना जा चुका है ऐसा क्यों ? सम्मानलोभ ने क्या कहा उसको सुनाने से अधिक उपयुक्त है इक्कीसवी सदी के चिकित्सक, चर्म एवं गुप्त अंगों के रोगों में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने वाले डॉ बी एल मंसूरिया की बात बताती हूँ।

उन्होंने कहा यह तेल कोई औषधि नहीं है इसमे पॉली अन्सेच्युरेटेड फैटी एसिड होते हैं, इसे ऐसा समझिये कि तरल रूप में वसा होती है। इसमे कोई चिकित्सकीय गुण नहीं होता है वरन इसकी मालिश से बॉडी लिगामेंट को आराम मिल सकता है। पुरूष में स्तम्भन के मामलों में यह साफ़ है कि इसका सीधा सम्बन्ध मानसिक स्थिति से है कोई एक लाख पुरुषों में किसी एक को लिंग सम्बन्धी समस्या हो सकती है।

कथा सुनते सुनते इस बार दूसरी सखी ने प्रश्न कर लिया। फ़िर राजा ने क्या किया ?

सखी यह प्रश्न उचित है, राजा के पास अब एक ही मार्ग बचा था राज्य की सीमा पर रह रहा एक तपस्वी, तो कामलोभ अपने व्याकुल मन और आहत इच्छाओं को लेकर उनके द्वार पहुँचा, इस वार्तालाप से पूर्व एक आखिरी वक्तव्य तुमको सुनाना जरूरी है, इक्कीसवीं सदी की एक मनोवैज्ञानिक है डॉ श्रीमती राठी उन्होंने कहा हमारे शरीर के प्रति जिज्ञासा होना स्वाभाविक है, लड़के लड़कियां आयु के साथ हो रहे शारीरिक बदलावों से कई बार असहज हो जाते हैं इनके समाधान वे नए दौर की फिल्मों, वयस्कों की पत्र पत्रिकाओं और सबसे भयानक इन्टरनेट के दुरुपयोग से जुटाते हैं यह अधकचरा ज्ञान कुंठा और अपराध को जन्म देता है और कुछ को तेल बेचने वाले ठगते हैं।

तपस्वी से मिल कर आया कामलोभ आनंद से पूर्ण लग रहा था संध्या समय स्वार्थलोभ ने पुनः एक प्रयास किया राजा को काम के अधीन करने का, उसने ठीक वैसा ही किया जैसा संजय व्यास ने एक बड़े नगर की व्यस्त सड़क के किनारे समय काटने की जुगत में देखा था। एक मदारी जैसा आदमी सड़क पर तमाशा लगा के खड़ा था, चादर पर एक छिपकली रखी थी और ज्ञान बांटता हुआ कह रहा था, भाई साब ध्यान दीजिये, एक आप हैं जो घर में सुख नहीं उठा पाते और आपकी जगह अब पालतू जानवर ने ले ली है।

मेरे पास उसका एक फोटो भी है... वो भी दिखाऊंगा आपको, तब पता चलेगा कि मर्द कौन है? वह अपना पाउडर बेचता जाता लोग पाँच रुपये में मर्द बनते जाते। दो घंटे तक उसने वह फोटो नहीं दिखाया, किसी के पास इतना वक्त भी नहीं होता लेकिन संजय भाई के पास था और उन्होंने कहा अब फोटो दिखाना पड़ेगा। मदारी ने पास आ कर धीरे से कहा बाबू साहब क्यों गरीब के पेट पर लात मारते हो ? छोटे छोटे बच्चे है उनके लिए करना पड़ता है।

तो सखी स्वार्थलोभ भी यही कर रहा था लेकिन तपस्वी ने कहा "हे सखी काम, लोभ, मोह और माया से दुनिया चलती है इनमे से किसी एक के अधीन हो जाने पर संतुलन बिगड़ जाता है और व्यक्ति तत्पश्चात समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है इस व्याधि का उन्मूलन छिपकली को मारने में नहीं है।"

आज से एक हज़ार साल बाद भी विज्ञान के युग में भी मनुष्य एक रेगिस्तानी छिपकली का वंश समाप्त करने को प्रणरत रहेगा। तो उन समझदार विवेकशील लोगों की तुलना में इस कामलोभ के बारे में तुम क्या सोचती हो ? इतना कह कर कथा सुना रही सखी कुछ दूर झाड़ियों के पीछे लघुशंका करने गई फ़िर धीरे-धीरे छिपकली में बदल कर आंखों से ओझल हो गई।

अकेली रह गई सखी ने बाद में कहीं सुना कि उस राजा ने अपना नाम बदल कर संयमलोभ रख लिया था।



Friday, January 9, 2009

तन्हा तन्हा मत सोचा कर...

"पेशानी-ऐ-हयात में कुछ ऐसे बल पड़े, हंसने को जी जो चाहा तो आंसू निकल पड़े, रहने दो ना बुझाओ मेरे आशियाँ की आग, इस कशमकश में आपका दामन ना जल पड़े।" इन्ही शेर के साथ ग़ज़ल आरम्भ होती और सलीम के चेहरे पर मोनालीसा मुस्कान उतर आती मैं उसके चहरे पर कई भाव देखता किंतु होस्टल से निकल कर नए शहर में आए एक बीवीविहीन इंसान के लिए ऑफिस जाने के लिए खाना गैरजरूरी चीज़ नहीं हो सकता तो संगीत की रूमानियत को थोड़ा परे रखते हुए मैं उससे दाल चावल मांग बैठता, सलीम अपनी शास्त्रीय समझ को मुझ तक पहुंचाने के लिए कोई और दिन तय कर देता और फ़िर उसका छोटा भाई राजू मेरे लिए साबुन, तेल, दाल जुटाने लगता।

राजू को शिकायत रहती कि भाई साहब सारे दिन गानों में खोये रहते है कुछ काम नही करते फ़िर सलीम कहते ये राजू तो नाकारा है सउदीअरब भेजा था बस रंग बदल कर आ गया। राजू की स्थिति में तब तक कोई परिवर्तन नहीं आया जब तक मैं आकाशवाणी में दो साल तक वहाँ पोस्टेड रहा। आज मुझे राजू की याद इस लिए आई कि पूरा देश उसी से मुखातिब है और शाम को अमेरिकी भी अपना सर धुन रहे होंगे।

इस राजू का पूरा नाम बी रामालिंगम राजू है, जन्म १६ सितम्बर १९५४ को हुआ और आँध्रप्रदेश के लोयोला कॉलेज से वाणिज्य में स्नातक और ओहियो विश्वविद्यालय से एम बी ऐ तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद देश सेवा करने के बड़े सपने लेकर स्वदेश लौट आया। कल तक दुनिया के अरबपतियों में शामिल राजू की आज भारत की कई एजेंसियों को तलाश है। सफलता की अविश्वसनीय कहानियों के पात्रों में एक नाम राजू का भी सदा बना रहेगा, भारतीय कारपोरेट जगत में सम्माननीय व्यक्तियों में से एक राजू को उनकी कंपनी द्वारा कारपोरेट गवर्नेंस में रिस्क मैनेजमेंट हेतु वर्ष दो हज़ार आठ का गोल्डन पीकोक अवार्ड दिया गया था।

अरबों रुपये की इस बहु राष्ट्रीय कंपनी की शुरुआत मात्र बीस कर्मचारियों के साथ उन्नीस सौ सित्त्यासी में की गई थी, भवन निर्माण और कपड़ा व्यवसाय में हाथ आजमाने के बाद राजू ने प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में असीम संभावनाओं को पहचानते हए सत्यम नाम से सॉफ्टवेर सॉल्यूशन कंपनी की नीवं रखी, कंपनी का प्रोफाइल किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकता है न्युयोर्क और यूरोनेक्स्ट पर पंजीकृत , साठ से अधिक अंतरराष्ट्रीय ग्राहक, छ सौ से अधिक एलाईज और पचास भागीदार अरबों का व्यवसाय इन सब उपलब्धियों पर चेन्ने के अन्ना विश्वविद्यालय ने भी अपना सम्मान बढाया राजू को डॉक्टरेट की मानद उपाधी प्रदान करके।

राजू ने इस सफलता के बाद एकाएक अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर खुलासा किया कि वे बरसों से कंपनी के नतीजों को बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रहे हैं और एक नया नतीजा भी हाथों हाथ मिल गया भारतीय सेंसेक्स सात सौ और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का संवेदी सूचकाँक निफ्टी सात प्रतिशत तक गिर गया। ये निवेशकों के साथ धोखा है और आर्थिक अपराध। इस अरबों के हेरफेर वाले अर्थशास्त्र में व्यक्ति कि महत्वाकांक्षाएं ऐसी दुधारू तलवार है जो साम्राज्य निर्माण और व्यवस्था के पतन तक के कारण बनती रही है।

राजू ने जो कुछ किया उस पर हमारी नियामक संस्थाओं और वित्त मंत्रालय पर जिम्मेदारी अवश्य बनती है किंतु खरपतवार की भांति उग आए न्यूज़ चेनल्स के प्रस्तोताओं को ज़रा बर्नार्ड मेडाफ के बारे में अमेरिकी क़ानून व्यवस्था के सन्दर्भ में जान लेना चाहिए ये कोई बहुत पुराना और असामयिक व्यक्तित्व अथवा घटनाक्रम नहीं है। ग्यारह दिसम्बर को राजू की भांति मेडाफ ने भी ठीक ऐसा ही खुलासा किया और आज उनके लिए प्राथमिक तौर पे लगाए गए अनुमान के अनुसार बीस साल का कारावास और पाँच मिलियन का हर्जाना बनता है।

वर्ष उन्नीस सौ अडतीस में क्वींस में जन्मे मेडाफ अमेरिकी नेशनल असोसिएशन ऑफ़ सिक्युरिटीज़ डीलर्स यानी नेस्डेक के चेयरमेन रहे, राजनीति में स्नातक मेडाफ ने पाँच हज़ार डॉलर से कारोबार शुरू किया और वे वर्ष दो हज़ार सात में एक करोड़ डॉलर से अधिक के दान दाता थे आज अमेरिकी एजेंसियां उनसे पूछताछ में मसरूफ हैं। मेडाफ ने उन्नीस सौ सत्यासी की गिरावट में पुट से अरबों रुपये कमाए थे और उनकी इसी सफलता के फोर्मुले ने उनको जेल के सींखचों के पीछे धकेल दिया है। व्यक्ति के लिए उपयोगी और फलदायी निवेश कभी कभी संस्थाओं के लिए समान परिणाम नही देता.

इस महा मंदी ने अमेरिकी खिलाड़ी और उसके निवेशकों को चारों खाने चित्त कर दिया है। मैं इस बात में मेडाफ के सुख सागर का वर्णन इस लिए नहीं करना चाहता क्योंकि आप समझ सकते हैं कि इतनी संपत्ति के मालिक को क्या हासिल नही हो सकता जेल के सींखचों के सिवा? राजू और मेडाफ नेस्डेक के दो महारथी हैं एक प्रोधौगिकी प्रदाता दूसरा इसी क्षेत्र का गंभीर सौदागर। मेरे एक मित्र बड़े अनुभवी और सम्माननीय है इस विधा के, साल भर पहले उन्होंने मुझे अपने ज्ञान से डी एल एफ का एक भविष्य का सौदा करने से रोका और उसका परिणाम ये हुआ कि मेरे तीस हज़ार रुपये बच गए। मेरे ये मित्र भी सत्यम के दीवाने रहे हैं।

आज सत्यम के निवेशक हाँफते बिलखते गालियां देते और पश्चाताप करते दिखाई पड़ रहे हैं, हालांकि इस से उनके ज्ञान में अभिवृद्धि ही हुई होगी किंतु मेडाफ और राजू की सफलताओं के मायने सर्वकालिक सहमतीपूर्ण क्यों नहीं होते ? लालच भय दंभ और झूठ पर इतने साहसी और कर्मण्य लोग विजय श्री क्यों नहीं पा सकते ?

सउदी अरब से लौटे नाकामयाब मजदूर राजू और बी रामालिंगम राजू में बस इतना सा ही फर्क दिखायी पड़ता है कि मजदूर राजू ने किसी के सपने नहीं चुराए है। सलीम मिले तो उसे बताना कि तुम्हारा भाई दुनिया के बहुत सारे लोगों से बेहतर है और कभी मेहदी हसन के स्वर में फरहत शहजाद का कलाम सुनना " तन्हा-तन्हा मत सोचा कर, मर जावेगा मत सोचा कर, प्यार घड़ी भर का ही बहुत है, सच्चा झूठा मत सोचा कर....."